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जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व

पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। हिन्दू धर्म में जगन्नाथ रथ यात्रा का एक बहुत बड़ा महत्व हैं। मान्यताओं के अनुसार रथ यात्रा को निकालकर भगवान जगन्नाथ को प्रसिद्ध गुंडिचा माता मंदिर पहुँचाया जाता हैं। गुंडिचा माता मंदिर में भारी तैयारी की जाती हैं एवं मंदिर की सफाई के लिये इंद्रद्युमन सरोवर से जल लाया जाता हैं। यात्रा का सबसे बड़ा महत्व यही है कि यह पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता हैं। चार धाम में से एक धाम जगन्नाथ मंदिर को माना गया हैं।

भगवान जगन्नाथ रथयात्रा

जगन्नाथ रथयात्रा में सबसे आगे भगवान बालभद्र का रथ रहता हैं बीच में भगवान की बहन सुभद्रा का एवं अंत में भगवान कृष्ण का रथ रहता हैं।द्वापर काल से इस यात्रा का आयोजन किया जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा ने उनसे नगर भ्रमण की इच्छा जाहिर की। इसके बाद सुभद्रा के नगर भ्रमण के लिए रथ यात्रा का आयोजन किया गया। इस यात्रा के लिए तीन रथ बनाए गए और इन रथ पर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने बहन सुभद्रा को नगर भ्रमण कराया था।


कालांतर से यह परंपरा चलती आ रही है। आधुनिक समय में तीन लकड़ी के रथ बनाए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ का विशाल रथ होता है, जिसमें 16 पहिए लगे होते हैं। जबकि बलराम के रथ में 14 और सुभद्रा के रथ में 12 पहिए लगे होते हैं, जिसे श्रद्धालु अपने हाथों से खींचते हैं। अबकी बार 2500 वर्षो के बाद बिना श्रद्धालुओं के रथ यात्रा निकाली गई है।

भगवान जगन्नाथ के रथ की लंबाई 45.6 फीट है और इसमें 18 पहिए लगे हुए हैं. वहीं भगवान बलभद्र का रथ भगवान जगन्नाथ के रथ से थोड़ा छोटा है. भगवान बलभद्र के रथ की लंबाई 45 फीट है और इसमें 16 पहिए लगे हुए हैं. माता सुभद्रा के रथ की लंबाई 44.6 फीट है और इसमें 14 पहिए लगे हुए हैं,


जबकि रथ यात्रा के पीछे का पौराणिक मत यह है कि स्नान पूर्णिमा यानी ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन जगत के नाथ श्री जगन्नाथ पुरी का जन्मदिन होता है। उस दिन प्रभु जगन्नाथ को बड़े भाई बलराम जी तथा बहन सुभद्रा के साथ रत्नसिंहासन से उतार कर मंदिर के पास बने स्नान मंडप में ले जाया जाता है।


108 कलशों से उनका शाही स्नान होता है। फिर मान्यता यह है कि इस स्नान से प्रभु बीमार हो जाते हैं उन्हें ज्वर आ जाता है।


तब 15 दिन तक प्रभु जी को एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। जिसे ओसर घर कहते हैं। इस 15 दिनों की अवधि में महाप्रभु को मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों के अलावा कोई और नहीं देख सकता। इस दौरान मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ जी की प्रतिमा स्थपित की जाती हैं तथा उनकी पूजा अर्चना की जाती है।


15 दिन बाद भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। जिसे नव यौवन नैत्र उत्सव भी कहते हैं। इसके बाद द्वितीया के दिन महाप्रभु श्री कृष्ण और बडे भाई बलराम जी तथा बहन सुभद्रा जी के साथ बाहर राजमार्ग पर आते हैं और रथ पर विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं।


स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।


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