एक संवाद माता पार्वती एवं महादेवजी के मध्य जब महादेवजी ने माता पार्वती से मिलने से मना कर दिया, तब माता पार्वती द्वारा महादेवजी से माया के विषय में सतंसंग
तब हिमाचल ने मस्तक झुकाकर पुनः महादेव जी से कहा - ' भगवन् ! क्या कारण है कि मुझे इस कन्या के साथ यहाँ नहीं आना चाहिये ? '
भगवान् शंकरने हँसते हुए उत्तर दिया ' यह कुमारी सुन्दर कटि - भाग से सुशोभित पतले अंगों वाली तथा मृदु वचन बोलने वाली है । अतः मैं तुम्हें बार - बार मना करता हूँ कि इस कन्या को मेरे समीप न ले आना । '
भगवान् शंकर का यह निष्ठुर वचन सुनकर गौरांगी पार्वती , तपस्वी शिव से इस प्रकार बोलीं - ' शम्भो ! आप तप शक्ति से सम्पन्न हैं और बड़ी भारी तपस्या में लगे हुए हैं । आप - जैसे महात्मा के मन में जो यह विचार उत्पन्न हुआ है , वह केवल इसलिये कि यह तपस्या निर्विघ्न चलती रहे । परंतु मैं आपसे पूछती हूँ - आप कौन हैं और यह सूक्ष्म प्रकृति क्या है ? भगवन् ! आप इस विषय पर भलीभांति विचार करें ।
महादेवजी बोले - सुन्दरी ! मैं उत्तम तपस्या के द्वारा ही प्रकृति ( माया ) - का नाश करता हूँ । प्रकृति से विलग रहकर अपने यथार्थ स्वरूप में स्थित होता हूँ । इसलिये सिद्धपुरुषों को प्रकृति का परमात्मा संग्रह कदापि नहीं करना चाहिये ।
श्री पार्वतीजी ने कहा - शंकर ! आपने जिस उत्तम वाणी के द्वारा जो कुछ भी कहा है , क्या वह प्रकृति नहीं है ? फिर आप प्रकृति से अतीत कैसे हैं ? मेरी यह बात सनकर आपको तत्त्व का यथार्थ में निर्णय करना चाहिये ।
यह सम्पूर्ण जगत् सदा प्रकृति से बँधा हआ है । प्रभो ! हमें वाणी द्वारा इस विवाद करने से क्या प्रयोजन ? शंकर ! आप जो आप सुनते हैं , खाते हैं और देखते हैं , वह सब प्रकृति का ही कार्य है । प्रकृति से परे होकर आप इस हिमालय पर्वत पर इस समय तपस्या किस लिये करते हैं ? प्रकृति से आप मिले हुए हैं , क्या इस बात को नहीं जानते ?
यदि आप प्रकृति से परे हैं और आपकी यह बात सत्य है , तो आपको अब मुझ से भय नहीं मानना चाहिये ।
माया हमसे अलग नहीं है, हम में माया है और हम माया में, प्रकृति और पुरुष एक है और साक्षात् है , सत्य यही है, जो मनुष्य माया में रहकर अहंकार से परे रहता है वही जीवन यात्रा में परम शांति प्राप्त करता है ,
ॐ नमः शिवाय
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